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​गुर्जर : एक जुझारू कौम

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राजधानी दिल्ली की सड़कों पर ऐसी तमाम लग्जरी कारें आम हैं, जिनके पीछे लिखा होता है : गुर्जर या गुर्जर बॉय, तो यूपी, एमपी, राजस्थान आदि राज्यों के पिछड़े इलाकों में खेती-बाड़ी कर मुफलिसी की जिंदगी जी रहा बड़ा तबका भी इसी समुदाय से है। अफगानिस्तान तक पसरे गुर्जर हिंदू हैं, तो मुसलमान भी। सच तो यह है कि यह जुझारू कौम आज भी अपनी सही पहचान को मोहताज है। बदलते वक्त में गुर्जरों की दशा और दिशा का जायजा ले रही हैं प्रियंका सिंह:

गुर्जर... इस समुदाय का नाम सुनते ही कोई साफ-सी छवि या अवधारणा एक बार में जेहन में नहीं बन पाती। दिमाग में सबसे पहला सवाल आता है कि आखिर कौन हैं ये? क्या ये पुराने जमाने के गुर्जर और प्रतिहार राजाओं वाले गुर्जर हैं, जिनकी वीरता की गाथा दुनिया जानती है या फिर ये गुर्जर सम्राट मिहिरभोज के वंशज हैं?

आरक्षण की मांग को लेकर किरोड़ीमल बैंसला की अगुवाई में राजस्थान के रेलवे ट्रैक पर बैठने वाले हजारों लोगों के रूप में पहचाना जाए गुर्जरों को या फिर दिल्ली-एनसीआर में जमीन का मुआवजा पाए नवधनाढ्य लोगों की जमात के तौर पर, जिनके पास अपने मवेशी का चारा ढोने तक के लिए फॉचुर्नर, बीएमडब्ल्यू और ऑडी जैसी गाड़ियां हैं (बेशक इनकी तादाद कम ही है)।

कश्मीर और देश के बाकी हिस्सों में रहने वाले खानाबदोश गुर्जर हैं, तो सचिन पायलट जैसे युवा नेता भी इसी बिरादरी के हैं, जो न सिर्फ राजनीति का एक मुखर चेहरा हैं, बल्कि नए जमाने से कदमताल करते युवाओं की पहचान भी। कुल मिलाकर स्थिति साफ नहीं है या यूं कहें कि सदियां बीत जाने के बाद भी गुर्जरों के लिए पहचान का संकट बना हुआ है।

कॉमन अजेंडा

संस्कृत में गुर्जर का मतलब होता है : दुश्मनों का नाश करने वाला। संधिविच्छेद करें तो गुर यानी दुश्मन और जर यानी नाश करने वाला से बना है गुर्जर। हकीकत यह है कि गुर्जर (गुज्जर, गूजर भी कहलाते हैं) वह कौम है, जिसने देश के लिए दुश्मनों (मुगलों से लेकर अंग्रेजों तक) से लोहा लिया। भारत के लेकर अफगानिस्तान तक फैले गुर्जर हिंदू हैं तो मुसलमान भी।

इतने बड़े लेवल पर फैलाव और रीति-रिवाजों में फर्क पर गौर करें, तो गुर्जर जाति नहीं, बल्कि एक नस्ल के रूप में सामने आते हैं। आमतौर पर बलिष्ठ कद-काठी वाली यह कौम ईमानदार मिजाज और बिना लाग-लपेट साफ बोलनेवाली होती है। इस समुदाय की अपनी बनाई बंदिशें भी खूब हैं, जो आज भी गुर्जरों के लिए बंधन कम और शान ज्यादा है। खेती-बाड़ी और दूध के अपने मूल काम से इतर भी ये आजकल तमाम क्षेत्रों में हाथ आजमा रहे हैं।

दिल्ली-एनसीआर के इलाके में अगर गुर्जरों के मुख्य पेशे की बात करें, तो खेती और मवेशी पालन के साथ-साथ प्रॉपर्टी का बिजनेस है। यहां सैकड़ों ऐसे गुर्जर परिवार मिल जाएंगे, जिन्हें सिर्फ किराए से महीने के 10-20 लाख रुपये मिलते हैं। कश्मीर में अगर गुर्जर चरवाहे मिलेंगे, तो मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात में खेती बाड़ी करने वाले किसान भी। देश भर की बात करें तो कमोबेश दो ही तरह के गुर्जर हैं : कम ही सही, एक तो जिनके पास अकूत पैसा है और दूसरे वे, जो आज भी बदहाली की जिंदगी बिता रहे हैं। बीच वाली स्थिति शायद ही है।

नाक का सवाल

बड़ा क्षेत्र और इलाका कोई भी क्यों न हो, आर्थिक स्थिति जैसी भी हो, गुर्जरों के लिए स्वाभिमान हमेशा नाक का सवाल रहा है। इन्हें सब कुछ मंजूर हो सकता है, लेकिन जाति-बिरादारी में अपनी नाक नीची नहीं। इसके लिए वे कई बार हदें भी पार कर जाते हैं। हॉरर किलिंग जैसी बदनामियां भी कभी-कभार इस समुदाय के साथ चस्पां हो जाती हैं, तो हाल के सालों में लाखों-करोड़ों की आलीशान शादियों में पैसे की बर्बादी भी इनके नाम के साथ जुड़ गई है।

समुदाय के अंदर महिलाओं की स्थिति स्थिति हमेशा से दोयम रही है। खेती-बाड़ी और पशुपालन के काम में बराबर हिस्सा लेनेवाली महिलाओं की आवाज घर के अंदर और बाहर, दोनों ही जगह दबी रह जाती है। देश की राजधानी दिल्ली और एनसीआर में गुर्जरों के गांव में आप चले जाएं, तो महिलाएं आपको पर्दा करते दिख जाएंगी। कुछ मॉडर्न परिवार भले ही अपनी बेटियों को अच्छी परवरिश दिला दें, पढ़ा-लिखा दें, लेकिन अहम मसले (शादी में पसंद, प्रॉपर्टी और बिजनेस में हिस्सेदारी आदि) पर उनकी शायद ही सुनी जाती है। छोटे स्तर की राजनीति में जरूर गुर्जर महिलाओं का नाम कभी-कभार आता है, लेकिन वह उनकी अपनी मर्जी से नहीं, बल्कि बतौर पति या बेटे की डमी कैंडिडेट के रूप में। नाम पत्नी या मां का होता है और काम पति या बेटे का!

दिख रहा है बदलाव

वक्त के साथ गुर्जर समुदाय में भी बदलाव दिखने लगे हैं। पहले यह समुदाय शिक्षा के मामले में बहुत पिछड़ा हुआ था, लेकिन अब बात ऐसी नहीं है। शायद ही कोई घर होगा, जिसके बच्चे अब स्कूल नहीं जाते। यही हाल रोजगार का भी है। अपना बिजनेस नहीं कर पाए, तो नौकरी करना भी अब शान के खिलाफ नहीं माना जाता। हां, नौकरी चाहिए प्रतिष्ठा वाली। इस कौम की बदलती सोच की तस्दीक करने के लिए आप कोई भी मैट्रिमोनियल साइट देखिए, बड़ी संख्या में गुर्जर लड़के-लड़कियां आपको दिखेंगे, जो डॉक्टर, इंजीनियर या फिर एमबीए हैं।

सबसे ज्यादा हैरत तो यह देखकर होती है कि इन साइट्स पर अपने पार्टनर के लिए चॉइस देते वक्त कई बार 'कास्ट नो बार' भी लिखा दिख जाता है। विदेशों में बसने वाले इस समुदाय के लोग बेशक कम नजर आते हैं, लेकिन वहां रहकर बढ़िया कमाई और नौकरी करनेवाले काफी हैं। जाति-बिरादरी के लिए अपनी जान कुर्बान करने वाली कौम की नई पौध में इस तरह की सोच वाकई इस बात का सबूत है कि वक्त ही नहीं, गुर्जर भी बदल रहे हैं।

बदलाव को है, पर बहुत कम

हमारी बिरादरी में पहले लोग बच्चों को पढ़ाते-लिखाते नहीं थे। खेती और प्रॉपर्टी ही मुख्य धंधा था। अब युवा दूसरे प्रफेशन भी अपना रहे हैं। खुद मैं क्रिकेट में आया। हालांकि इसमें समुदाय से ज्यादा मेरी फैमिली का ही रोल रहा। समाज के तौर पर ज्यादा बदलाव नहीं हैं। फिर भी मानना पड़ेगा कि हालात कुछ बेहतर हो रहे हैं। -परमिंदर अवाना, क्रिकेटर

वक्त के साथ चलने की जरूरत यह देखकर दुख होता है कि बाकियों के मुकाबले हमारी कम्यूनिटी में बदलाव काफी कम हुआ। हमने रिजर्वेशन का भी फायदा नहीं उठाया। खेती हमारी पहचान थी। महानगरों में जमीनें चली गई हैं और इस पैसे का सही इस्तेमाल करनेवाले लोग भी कम ही हैं। जरूरी है कि गुर्जर खुद को वक्त के मुताबिक बदलें। -विश्वजीत प्रधान, ऐक्टर

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